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परिस्थितियाँ एक मानसिकता का निर्माण करती हैं, और यही प्रक्रिया एक व्यक्तित्व को जन्म देती है |

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चलिए पूरी कहानी बताता हूँ, एक ईमानदार सरकारी कर्मचारी के घर मेरा जन्म हुआ | उस समय पिताजी की दैनिक वेतन भोगी अस्थाई नोकरी थी, क्योकि माँ और पिताजी पहले से गणित के अच्छे शिक्षक थे तब वे दोनों कोचिंग क्लासेस लगाया करते थे, जिसे उनकी नोकरी के दौरान अतिरिक्त खर्चो के लिए माँ ने सम्हाला |

कागज़ी कार्यवाहियों में गहन रूचि के चलते उनके हिसाब किताब के अच्छे ज्ञान के कारण उनसे कई जनप्रतिनिधि एवं अशासकीय समाज सेवी संगठन अपनी कागज़ी कार्यवाहियों की खानापूर्ति करवाने का काम दिया करते थे | उस समय मैंने उनसे एक प्रश्न किया कि “माँ एक बात तो मुझे समझ आ गई है, की सरकार आम आदमी की मदद के लिए कई प्रयास तो कर रही है, फिर भी इन योजनाओ का लाभ उन तक क्यों नही पहुँचता ” उन्होंने मुझे समझाया की “जो हमें दिखाया जाता है, वो पूरी हकीकत नही होती है | हाँ प्रयास तो किये जाते है और योजना भी तैयारी की जाती है, किन्तु बिच में कुछ लोग अपने मतलब के लिए इस क्रम में बाधा पैदा कर देते है | अभी हम इतने मजबूत नहीं है, कि इसके लिए कुछ कर सके  ” मैं बोला की मैं लोगों की मदद करना चाहता हूँ तो उन दोनों ने कहा की जब तुम्हारा भी संगठन होगा, सबकी मदद करना | हम तुम्हे मार्गदर्शन देंगे |
पिताजी कृषि उपज मंडी में कार्यत थे | पूरी निष्ठा और लगन से अपने काम के प्रति समर्पित थे | वे मानव अधिकार आयोग एवं श्रम कानून सम्बन्धी जानकारी रखते थे, इस कारण अपने उच्च अधिकारी को फर्जी दस्तावेज भरने से मना करने और भ्रस्टाचार में साथ न देने की यह सजा मिली की उनकी नोकरी उनसे छीन ली गई | 3 दिन तक मंडी कार्यलय बंद रहे थे | वे अपनी बेगुनाही के सबूत इकट्टा करके भारतीय संविधान से इन्साफ की प्रतीक्षा में थे | घर की समस्याएँ बड़ने लगी, माँ ने आगे बढकर ज़िम्मेदारी लेते हुए बोडा, म.प्र. में एक विद्यालय प्रारंभ कर दिया, जिसने कुछ ही समय में अपनी गुणवता और शिक्षण पद्दति के चलते बहुत प्रसिद्धि प्राप्त की, सब सही चल रहा था साल गुज़रते गये | उस समय तक हम पचोर में निवास करने लगे थे और आखिरकार सत्य की विजय हुई और पिताजी को विभाग से पुनः नोकरी पर लोटने के लिए सूचनापत्र प्राप्त हुआ | हम सब खुश थे पिताजी वापस नोकरी पर जाने लगे थे |
उस समय मेरी स्कूली शिक्षा चल रही थी और मेरी प्रौद्योगिकी समझने और खेल में रूचि बढ़ रही थी | अपने स्कूल जाकर बच्चो को नई नई जानकारीयां बताया करता था, क्योकि क्लास में जाते ही बच्चो के बेग बंद करवा देता था, इससे उनकी ख़ुशी देखने बनती थी | वे अभी भी मेरे तरीके को पसंद करते है | दोस्तों के साथ मैंने एक कंपनी शुरू की, जिसमे हम लोगो को रोज़मर्रा की ज़रूरी सेवाएँ घर पर ही हेल्पलाइन नंबर के माध्यम से प्राप्त करवाते थे | उस बिज़नेस आईडिया को यहाँ से समझे, यहाँ दबाएँ
कुछ समय बाद मुझे पता चला की पिताजी के ऑफिस की स्थिति सुधरने की जगह बदतर हो गई थी | पिताजी को उनके अधिकार नही दिए जा रहे थे, और उनकी मंडी समिति द्वारा किसानो का हक लुटा जा रहा था | किसानो के लिए बनाई गई योजनाओ का लाभ उनतक न पंहुचा कर बड़े स्तर पर घपला किया जा रहा था | कई बड़े अधिकारी एवं कर्मचारी भ्रस्टाचार में लिप्त हो चुके थे |
दरअसल भ्रस्टाचार सिस्टम की हालत कुछ यूँ कर देता है की, आप उससे लड़ नहीं सकते, आप या तो स्वयं भी उसमे लिप्त हो जाओ या वहाँ से भाग आओ |
वे ईमानदार थे शिक्षक थे, स्वाभिमानी होना निश्चित था उन्होंने लड़ने का प्रयास किया | इसबार किसी एक व्यक्ति से लड़ाई नही थी उन्होंने बड़े अधिकारीयों से बुराई मोल लेने के साथ ही उनके विभाग के सिस्टम से जंग छेड दी थी | वे उच्चतम अधिकारी व सचिवो के पास शिकायत के लिए पहुँच गये |
समय के साथ इस दुनिया और जीवन के मकसद को समझने की मेरी जिज्ञासा भी बढती जा रही थी | अब जब उच्च शिक्षा के लिए कॉलेज गया तो पाठ्यक्रम से मेरा मन उठ गया, क्योकि जो ज्ञान मुझे पाठ्यक्रम की किताबें दे रही थी वे तो वास्तविक दुनिया से बहुत पिछड़ा हुआ था बिलकुल हमारे समाज और प्रथा की तरह | दोस्तों की मदद से कई महाविद्यालयों में कई विषयों पर जानकारी जुटा रहा था | उधर दूसरी तरफ उच्च अधिकारीयों के दबाव में पिताजी को झूठे आरोपों में निलंबित करके उन्हें पुनः कमज़ोर समझने की भूल की जा चुकी थी | इस बार बात पिताजी के आत्मसम्मान और किसानो के हक की थी | बड़े विश्वविद्यालय से तकनिकी शिक्षा लेने का मेरा सपना असंभव हो चूका था | अब मैं भी पिताजी के साथ उनकी सत्य की भ्रस्टाचार के खिलाफ जंग में पुर्णतः शामिल हो चूका था |
दोस्तों के साथ शुरू की कंपनी को भी समय न दे पाने और आर्थिक स्थिति खराब होने के कारण रोकना पड़ा | परिवारजन की मानसिक और आर्थिक स्थिति पूरी तरह से बिगड़ चुकी थी |  बोडा स्कूल के छात्रों को भी अन्य स्कूलों में भेज बंद करना पड़ा | हमारा आपसी तनाव बढ़ने लगा था, जहां मुझे विपरीत परिस्थिति में मानव मानसिकता और संयमता की ताक़त को समझने का अच्छा मोका मिला | हम तीनो ने एक दुसरे को सम्हाला और साथ ही इन परिस्थितियों से हमारा प्रयास दृण हो चूका था | मैंने शिक्षा की ज्योति को बुझने नहीं दिया, पचोर में कुछ जरूरतमंद बच्चो को शिक्षादान के साथ वह क्रम भी जारी रखा | दिन में पिताजी के साथ सबूतों पर काम करता और रात में फ्लेक्स पम्पलेट और विज्ञापन के कार्यो को पूरा करता |
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इसी बीच अपनी समाजसेवा के शोक के चलते अपनी संस्था का पंजीयन भी करवा लिया | और अन्य संस्थाओ को मदद करने का कार्य मैंने अपने जिम्मे ले लिया | गरीब ज़रूरतमंद बच्चो को हम मित्र मिलकर निःशुल्क स्कूली शिक्षा की सेवाएँ भी प्रदान करना शुरू कर चुके थे | सहायता के लिए कई समाजसेवी मित्र भी आगे आने लगे थे, उस समय सबसे पहले आशीर्वाद कोचिंग के संचालक मित्र प्रतिक जी ने मदद के लिए हाथ बढाया और अपनी कोचिंग क्लास में ज़रूरतमंद बच्चो को अनेको विषयों पर निःशुल्क या न्यूनतम सेवा शुल्को पर सेवाएँ प्रदान की, जिसने मेरा मनोबल बढ़ा दिया था |
मेरे इस संघर्ष पथ में बहुत से सज्जनों का साथ मिला इनमे से कुछ के नाम और यादें 
अब समय था हमारे पहले बड़े प्रोजेक्ट का जिसमे हम दोस्त दशहरे के बाद इंदौर जाकर दिवाली के लिए होने वाली सफाई के दौरान घरो से निकलने वाले अच्छे कपडे, जुते, किताबे और अन्य ज़रूरी काम आ सकने वाली वस्तुओ को घर-घर से इकट्टा करने के लिए जा रहे थे | और आर्थिक मदद के लिए हमारे लोकल जनप्रतिनिधियों से ज़रूरी मदद की अपील की थी | जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार भी किया, और कहा की हम हर सक्षम मदद करेंगे | हम इंदौर के लिए रवाना हुए..
इंदौर सामग्री एकत्रीकरण के प्रोजेक्ट की कहानी कि वहां क्या हुआ और हमें क्या सिख मिली यहाँ से पढ़कर पुनः यहीं से जारी रखे..
इंदौर सामग्री एकत्रीकरण 1 की कहानी के कुछ अंतिम सारांश से यहाँ शुरू करूंगा |
वापस लोटकर जब अपने जनप्रतिनिधियों से संपर्क करने की कोशिश की तो पहले कुछ सप्ताह तो हम उनसे मिल ही नही पाए | जब मिले तो इतने इंतज़ार पर उनका कहना था की “जनसेवा के काम का भार बहुत है “ बात सही थी पर उनके मुख से हज़म नहीं हो रही थी |
खेर जब हमने उनसे इंदौर की सारी कहानी साझा की उसपर उनका कहना था की बेटा अब मैं तुम्हारी मदद कैसे करू तुम तो इंदौर में अपनी सेवाएं देकर आये हो अगर अपने पचोर में यह कार्य करते तो गाडी के आगे हमारे बेनर लगवाते | तुम्हारा भी नाम होता और हमारा भी ! तब तो मैं तुम्हारी मदद कर पाता अभी कैसे?
इस उत्तर ने मुझे बड़ी असमंजस की स्थिति में डाल दिया था, क्योकि जितने लोगो की मदद हम इंदौर जैसे बड़े शहर में कर पाए उतनी अच्छी तरीके से और उस स्तर से यहाँ संभव नहीं हो पता |
पर मैं उनकी बातों का तात्पर्य समझ चूका था | की आजकल दान दिखावे का गहना मात्र रह गया है | दान से दोगुना कीमत को तो उसका बखान में लगा रहे है ये कई बड़े और दोगले लोग | मैं समझ चूका था की इन छुट-पुट लोगो के दिखावे के चंदे से मैं समाज की मदद नहीं कर पाउँगा | मुझे कई अधिक धनराशी और साथियों की ज़रूरत पड़ेगी और इसके लिए मुझे पैसे कमाने होंगे और उन असली मददगार लोगो तक पहुचना होगा जो समाज की बुराइयों को मिटाने और मानव सभ्यता को विकसित करने के प्रति अपनी पूरी मेहनत लगा रहे है | उन लोगो के साथ मिलकर ही मैं अपनी बेहतर समाज की कल्पना को पूरा कर पाउँगा |
पहली योजना लगभग फेल रही, पर एक महत्वपूर्ण बात समझा गई थी, की अगर ज़रूरतमंद है तो उनकी मदद करने वालो की भी कमी नहीं है | 
एफटीवियर से जुटाए पैसे से हमारे संगठन को बढ़ावा दिया जिससे अब अनेको संस्थाओ, स्वयंसेवको, समाजसुधारकों, दानदाताओ और महान व्यक्तित्वों की मदद से लगातार ज़रूरतमंदों तक पहुँच पाना संभव हो पा रहा है | हमारे वीर योध्या समाज को बेहतर बनाने के लिए अपना हर संभव प्रयास कर रहे है | वो सिर्फ ज़रूरतमंद की मदद ही नहीं करते अपितु साथ ही उसे चुनोती से सामना करने के लिए सक्षम बनाते है | 

हम बुराई मिटाते है, जागरूकता फेलाते है, जिंदगी को एक मकसद के लिए जीते है ! हम है एवेंजर !!

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